ना कोई बंदिशे बाँध सकी है
ना कोई रंजिशे रोक सकी है।
मैं अपनी सोच की परवाज़ से
ख्वाहिशों के आसमान में
उड़ने वाला वो परिंदा हूँ
जो उम्मीदों के अल्फ़ाज़ से
कुछ कर गुजर जाने की ज़िद्द पर ही ज़िन्दा हूँ।
अरे ख़ौफ़ के समंदर से मेरा क्या वास्ता?
मौत के मुक़दर से भी मैं तो ढूँढ ही लूँगा रास्ता।
मर कर फिर से ज़िन्दा होने का जलसा हैं मुझमें
कैसे डरा पाओगे?
चुनौतियों को चीर कर चखने की लालसा है मुझमें
तो जीते जी तुम मुझे कैसे डरा पाओगे?
कैसे डरा पाओगे?
# नीतू की कलम से